गुरुवार, 21 अप्रैल 2022

स्वयंसिद्धा

 *स्वयंसिद्धा*


"बहू,देखना ज़रा ये तुम्हारा फ़ोटो है क्या ? शरद बाबू ने अपनी बहू प्रमदा को एक बहुत पुराना सा अख़बार दिखाते हुए पूछा।

"जी, बाबूजी, ये मेरा ही है"प्रमदा ने मुस्कुराते हुए कहा।

"बहू, तुम विवाह के पूर्व लिखती भी थीं, और वह भी इतना अच्छा, कितनी अच्छी कहानी छपी है तुम्हारी" ससुर जी खुशी से बोले।

"जी, बाबूजी, विवाह से पूर्व मेरी दो पुस्तकें भी प्रकाशित हुई थीं" प्रमदा ने सहज भाव से कहा।

"बहू, ये बात तुमने कभी बताई नही, फिर लिखना क्यों छोड़ दिया, अब क्यों नहीं लिखतीं" ससुर जी ने प्रश्न किया।

"बाबूजी, अब ज़िंदगी पूरी तरह बदल गई है, कुछ ज़िम्मेदारियाँ है घर परिवार के प्रति, अब लिखने का समय ही नही मिलता" प्रमदा ने सरलता से कहा।

"ओह, "शरद बाबू कुछ सोचते हुए बोले।

"बहू, ये लो कलम , और आज बल्कि अभी से तुम लेखन शुरू करो, घर परिवार के कार्य सब मिलकर करेंगे" शरद बाबू ने प्रमदा को पेन देते हुए कहा।

"बाबूजी..." प्रमदा ने कृतज्ञ भाव से शरद बाबू के चरण स्पर्श किए।

तालियों की गड़गड़ाहट से प्रमदा की तंद्रा भंग हुई।

"आज का अगला अवार्ड वर्ष की सर्वश्रेष्ठ लेखिका , प्रमदा माथुर को जाता है, उन्हें ये अवार्ड उनकी पुस्तक"स्वयंसिद्धा" के बेहतरीन लेखन के लिए दिया जा रहा है, आईए प्रमदा जी" स्टेज पर प्रमदा का नाम पुकारते ही हॉल तालियों से गूंज उठा।

प्रमदा अपनी आँखों में झिलमिलाते तारोँ को पलकों से ढाँकते हुए उठी, उसने देखा दर्शक दीर्घा की प्रथम पंक्ति में उसका पूरा परिवार गर्मजोशी से तालियां बजाकर उसका स्वागत कर रहा है।

"प्रमदा जी, आपने लंबे अंतराल के बाद लेखन पुनः आरंभ किया और एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि एक स्त्री स्वयंसिद्धा होती है" मुख्य अतिथि ने अवार्ड देते हुए प्रमदा से कहा और माईक प्रमदा को देकर कहा कि वह भी दो शब्द बोले।

प्रमदा ने हाथ हिलाकर गौरवान्वित होते ,परिवार को देखते हुए कहा--

"मैं तो एक साधारण स्त्री हूँ, हर स्त्री स्वयंसिद्धा होती है, किंतु जब उसकी हर सफ़लता मे उसका परिवार साथ खड़ा हो तब वह सिद्ध हो जाती है सर्वश्रेष्ठ"


*नम्रता सरन "सोना"*

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन

 


*"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन..."*


"देखो तो अनंता, ये मुझे भुलक्कड़ कहते हैं, अभी मैंने इनसे पूछा कि आपने ऑइनमेंट रखा, तो बोले भूल गया, मैंने पूछा कि, माला रखी, तो बोले भूल गया, अब तुम बताओ , भुलक्कड़ मैं हूं या यह हैं, घुटनों के दर्द का आइनमेंट भूल आए, अब वहां जाते ही लेना पड़ेगा, और माला... उसके बिना तो मेरा एक दिन भी नहीं गुजरता, गीता रोज़ पढ़ती हूं, माला भी सुबह शाम ज़रूरी है, मुझे भुलक्कड़ कहते हैं,अब देखो तो कौन है भुलक्कड़.हा..हा..हा" वो सहयात्री बुज़ुर्ग महिला किसी से फोन पर बहुत ज़ोर से बात कर रही थी, दिल्ली से भोपाल आते हुए ललितपुर में तकरीबन पूरी बोगी खाली हो चुकी थी, कुछैक लोग ही शेप थे, उन्हीं में ये बुज़ुर्ग दंपति थे, काफी संभ्रांत वर्ग के और उच्च शिक्षित भी लग रहे थे। महिला कुछ ज़्यादा और ज़ोर ज़ोर से बात कर रही थी, उनके पति बार बार टोंक भी रहे थे, कि चुप रहो, शांत रहो, कूल डाउन, इत्यादि।

"सुनो , मैं यहां पर भी क्लास लूंगी, आध्यात्म के प्रति जागरूक करना हमारा नैतिक दायित्व है" महिला ज़ोर से पति से बोली।

"अब यहां मत करना यह सब, कुछ दिनों के लिए आए हैं, बेटा बहू के साथ रहने, शांति से रहना, किसी को परेशान मत करना" पति ने कहा।

"मैं कहां किसी को परेशान करती हूं, लेकिन मैं बिना कुछ किए नहीं रह सकती, जीवन में जैसे ही हालात हो, हमें अपने कर्म करते रहना चाहिए, और फिर मैं तो परमपिता परमेश्वर का मार्ग दिखाती हूं, इसमें परेशान करने वाली क्या बात है? बोलो ...अब चुप क्यों बैठे हो?" महिला ने निर्विकार भाव से कहा।

"तुमसे बहस करना बेकार है, तुम वही करोगी जो तुम्हें करना है" पति ने हाथ जोड़ते हुए कहा।

"अरे ऐसे मेरे लिए हाथ मत जोड़ो, उस ईश्वर के साथ जोड़ो, जिन्होंने हमें जीवन दिया है, और अंत में हमें उन्हीं की शरण में जाना है, आध्यात्म को व्यवहार में उतारना ही कर्म है" महिला ने फिर हंसते हुए कहा ‌।

"अच्छा प्रिंसिपल महोदया, मुझे बख़्श दो, स्टेशन आने वाला है, चलो उठकर धीरे धीरे निकलते हैं" पति ने उठते हुए कहा।

"कैसी हो मम्मा" स्टेशन पर उन्हें रिसीव करने आए बेटे ने मॉं के पैर छूते हुए पूछा।

"एकदम फिट, आज भी सारे काम खुद करती हूं, और साथ ही अध्यात्म की क्लास भी लेती हूं, बेटा मैं बैठी नहीं रह सकती, कुछ न कुछ करती रहती हूं, पर तेरे पापा को लगता है कि मैं बहुत बोलती हूं और सबको परेशान करती हूं" महिला ने बेटे से ज़ोर से बोलते हुए कहा।

"अब तुम चुप भी रहोगी या नहीं, आसपास सभी सुन रहे हैं, शांत रहो" पति ने कुछ झल्लाकर कहा।

"शान्त ही तो नहीं होना है, बेटा , ट्रेन में मैंने दाल चावल,एक रोटी और दही खा लिया है, सुनिती ने अगर खिचड़ी भी बना ली होगी तो कोई बात नहीं, मैं शाम को खा लूंगी, जब से मूझे कैंसर डिटेक्ट हुआ है, मैं लाइट फूड ही खाती हूं, बेटा बस मुझे एक रुद्राक्ष की माला ला देना, ये तुम्हारे भुलक्कड़ पापा, मुझे भुलक्कड़ कहते हैं, लाना भूल गए, अब तू ही बता कौन भुलक्कड़ है , मैं या यह" वह बुजुर्ग महिला और भी न जाने क्या क्या बेटे से कहती जा रही थी और हंसती जा रही थी।

मैं और मेरे पति हतप्रभ थे, कैंसर से जूझ रही वह महिला कितनी ज़िंदादिल थी, शायद जीवन के प्रति कर्मठता और बिना रुके कर्म करते रहना ही उसकी जीवटता का प्रमाण था। मेरे पति ने भावुक होकर उनके चरण स्पर्श करते हुए कहा-

"आंटी, आप अपनी क्लास कहां लेंगी, मैं भी आना चाहता हूं"

"देखा...अभी स्टेशन पर उतरी हूं, और मेरे स्टूडेंट भी तैयार हो गए, अब जलो तुम , मैं तो क्लास लूंगी" महिला ने पति को ताना दिया और खिलखिलाकर हंस पड़ी।


*नम्रता सरन "सोना"*