शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

संजीवनी

 *संजीवनी*


इंजीनियरिंग की डिग्री तो थी लेकिन नौकरी नहीं, माता पिता की हर रोज़ प्रश्न करती आंखों से घबराकर अनय आज एक भयानक फैसला करके घर से बाजार की तरफ  निकला।

"हां भाई , क्या लेना है?" दुकानदार ने पूछा।

"एक मोटी और मज़बूत रस्सी "अनय धीरे से बोला।

"किसलिए चाहिए? काम बताओ,उस हिसाब से दिखाऊं"दुकानदार बोला।

"जी ,वो..."अनय कुछ सकुचाया, लेकिन दुकानदार भांप गया।

"अबे, तू तो अनय पांडे है न,  शास्त्री इंजीनियरिंग कॉलेज" दुकानदार ने पूछा।

"हं..हं.. हां, अरे आप तो निश्छल भैय्या है न, हमारे सीनियर " अनय ने दुकानदार को पहचानते हुए कहा।

"हां, सही ताड़ा, क्यों बे , रस्सी क्यों चाहिए, लटकना है, नौकरी नहीं मिल रही?" निश्छल ने एकसाथ कई प्रश्न दागे।

"ज..,ज..जी भैय्या,वो क्या है न कि .. अरे पर आप .. आप इंजीनियर होकर ये परचून की दुकान पर " अब अनय ने प्रश्न किया।

"बेटा ऐसा है कि, नौकरी तो अब मिलती नहीं, तो तेरी तरह सब लटक जाए?, अरे नौकरी न मिले तो न सही, लेकिन जीना छोड़कर, बुजदिली का सबूत देने वालों में से हम नहीं, अरे यार मां बाप ने हमारे लिए कितना कुछ किया है तो क्या हम उन्हें, ये सिला दें, खून के आंसू रोने के लिए छोड़ जाएं और हम निकल लें , पतली गली से, नहीं यार, नौकरी ही सब कुछ नहीं, बाजुओं में दम है और हौंसले बुलंद हो तो कोई भी काम शुरु कर दो, लग जाओ शिद्दत से, बस सफलता तुम्हारे कदम चूमेगी, समझा बच्चे " निश्छल ने अनय का हाथ , अपने हाथों में लेकर कहा।

"बोल, दूं क्या रस्सी?" निश्छल ने फिर चुटकी ली।

अनय मुस्कुराया और बोला -

"नहीं भैय्या, आपने तो संजीवनी दे दी है, अब मरना नहीं, जी कर दिखाना है"


*नम्रता सरन "सोना "*

बुधवार, 3 अगस्त 2022

मीठे रिश्ते

 *मीठे रिश्ते*


"बेटा, आज तुम्हें चौका छुलाई की रस्म करनी है, मैंने और महाराज ने बाकी सब खाना बना लिया है बस तुम्हें मीठे केसरिया चावल बनाने है ,शगुन के तौर पर" नवेली बहू से रागिनी ने कहा।

"जी मम्मीजी" सलोनी धीमे से बोली।

"आते हैं न बेटा" होस्टल मे पढ़ी सलोनी से रागिनी ने संशयपूर्ण स्वर में पूछा।

"ज..जी मम्मीजी" सलोनी ने संकोचवश हामी भर दी।

"चलो तुम बनाना शुरू करो, मैं पंडितजी को एक बार फिर याद दिलाकर आती हूँ कि वे समय से आ जाऐं, पास ही है मंदिर, बस अभी आती हूँ, और सुनो बेटा, पहली रसोई है,ज़रा अच्छे से बनाना, अम्माजी सबसे पहले चखेंगीं" रागिनी ने थोड़े चिंतित स्वर में कहा।

"जी मम्मीजी, मैं कर लूंगी" सलोनी धड़कते दिल से बोली।

"ठीक है बेटा"कहकर रागिनी किचन से निकल गई।सलोनी ने गहरी साँस भरी।

"का हुआ मोड़ी" अचानक अम्माजी की आवाज़ से सलोनी सिहर गई।

" चल जल्दी से चावल धोकर उबाल ले, मैं तुझे बहुत सरल तरीका बताती हूँ, मीठे स्वादिष्ट चावल बनाने का, इन धुले हुए चावलों को सादा उबाल लेना, उसके बाद कड़ाही मे घी तड़काकर लौंग, इलायची और केसरिया रंग का छौंक लगा देना, उसके बाद उबले चावल डालकर ,ऊपर से चीनी मिला देना, अच्छे से हिलाकर ,सूखे मेवों से सजा देना, समझ गई न, अब मैं चलती हूँ, पंडितजी आते ही होंगे" कहकर अम्माजी झट किचन से निकल गईं, सलोनी के चेहरे पर खुशी की लहर छा गई, अम्माजी कितने तरीके से उसे चावल बनाने की विधि बता गई थीं।

"वाह, खुशबू तो बहुत अच्छी आ रही है, अम्माजी तुझे पास कर ही देंगी, वाह, देखने में भी सुंदर लग रहे हैं" रागिनी संतुष्ट भाव से बोली।

"अम्माजी, ये लीजिए, बहू की पहली रसोई, मीठे चावल, खाकर बताईए कैसे बने हैं" रागिनी का दिल धकधक कर रहा था कि अम्माजी कोई कमी न निकाल दें।

"वाह, एक नंबर, मोड़ी ये ले नेग, बहुत ही स्वादिष्ट बनें हैं तेरे हाथ के मीठे चावल, खाओ..खाओ...सब खाओ भई, और बहुरिया को नेग देते जाओ"अम्माजी झूमती हुई बोलीं।

"शुक्र है अम्माजी को चावल पसंद आए" रागिनी मन ही मन सोचते हुए मुस्कुराई।सलोनी ने कृतज्ञ भाव और भरी आँखों से अम्माजी और रागिनी के पैर छुए।

"जीती रहो" दोनों के आशीर्वाद मे मीठे चावलों की मिठास घुल रही थी।


*नम्रता सरन "सोना"*

भोपाल मध्यप्रदेश 

सोमवार, 11 जुलाई 2022

कल आज और कल

 ऐच्छिक


*कल,आज और कल*


"अरे यार, ये बाबूजी फिर लैट्रीन में गिर गए हैं, जाओ ,उठाओ उनको" चित्रा ने खिसियाते हुए कहा।

"अरे यार, मुझसे नहीं होगा, वो लथपथ हो जाते हैं, मेरा जी घबराता है,मितली आने लगती है, भिकन को फोन लगाता हूं, अभी मोहल्ले की झाड़ू लगा रहा होगा " विवेक ने नाक भौं सिकोड़ते हुए कहा।

"नहीं है, निकल गया, मैंने फोन किया था, अब तुम ही उठाओ जाकर, कब तक टॉयलेट में पड़े रहेंगे" चित्रा तुनक कर बोली।

"नहीं यार, मुझसे नहीं होगा, तुम कुछ कर सकती हो" विवेक ने उम्मीद से पूछा।

"कुछ अक्ल है तुममें, मैं क्या कर सकती हूं, तुम्हारे पिता हैं, तुम्हें ही करना होगा चलो अब जल्दी करो"चित्रा ने आदेशात्मक लहज़े में कहा।

"ठीक है , कोशिश करता हूं "विवेक ने मुंह पर कपड़ा बांधते हुए कहा।

" ओ..ओ.., क्या मुसीबत है, मुझसे नहीं होगा यार, बाबूजी आपने बहुत परेशान करके रख दिया है, जब देखो, गंदगी मचा देते हो, संभलकर क्यों नहीं बैठते" विवेक टॉयलेट के दरवाजे पर खड़ा होकर बड़बड़ा रहा था, बाबूजी असहाय से बहती आंखों से करुण याचना कर रहे थे।

"हटिए पापा, यह सब क्या लगा रखा है, दादाजी कोई जानबूझकर तो नहीं गिरते, गंदगी में, उनकी उम्र देखिए, हटिए आप, मैं कर लूंगा सब, आप शायद भूल गए, लेकिन मैं नहीं भूला हूं, जब आप बीमार थे तो दादाजी , आपकी उल्टियां , अपने हाथों में झेल लेते थे, और जैसे आप मुझे बताते हैं कि, आपने मेरे बचपन में , कैसे मेरी सूसू पॉटी साफ़ की है, वैसे ही दादाजी ने भी तो आपके लिए किया होगा, क्या उन्होंने कभी ऐसे नाकभौं सिकोड़ा है, नहीं न, दादाजी की उम्र, अब वही बच्चों वाली है, बल्कि उससे भी नाज़ुक, ऐसे में क्या हम उनको , बदहाल छोड़ देंगे " विवेक के बेटे विश्वास ने अपने दादाजी को उठाते हुए कहा और उनकी साफ़ सफाई में लग गया।

"बेटा, मुझे माफ़ कर दे, बहुत स्वार्थी हो गया था मैं, तूने मेरी आंखें खोल दी " कहते हुए विवेक भी अपने पिता की सफाई करने में लग गया। दादाजी की आंखों से अविरल अश्रु धारा बह रही थी।

"दादाजी, रोइए मत, देखिए आपके दोनों बाजू आपको मजबूती से थामें हैं न, अब आपको कभी गिरने नहीं देंगे, मम्मी दादाजी के लिए कॉफी बनाओ" विश्वास दादाजी के आंसू पोंछते हुए बोला।

"हां बेटा " चित्रा ने कहा,मन आत्मग्लानि से भरा हुआ था, सोच रही थी कि "बच्चे ने आज , आंखें खोल दी, वरना हम अपने बच्चों की नज़रों  में गिर जाते "


*नम्रता सरन"सोना"*


गुरुवार, 21 अप्रैल 2022

स्वयंसिद्धा

 *स्वयंसिद्धा*


"बहू,देखना ज़रा ये तुम्हारा फ़ोटो है क्या ? शरद बाबू ने अपनी बहू प्रमदा को एक बहुत पुराना सा अख़बार दिखाते हुए पूछा।

"जी, बाबूजी, ये मेरा ही है"प्रमदा ने मुस्कुराते हुए कहा।

"बहू, तुम विवाह के पूर्व लिखती भी थीं, और वह भी इतना अच्छा, कितनी अच्छी कहानी छपी है तुम्हारी" ससुर जी खुशी से बोले।

"जी, बाबूजी, विवाह से पूर्व मेरी दो पुस्तकें भी प्रकाशित हुई थीं" प्रमदा ने सहज भाव से कहा।

"बहू, ये बात तुमने कभी बताई नही, फिर लिखना क्यों छोड़ दिया, अब क्यों नहीं लिखतीं" ससुर जी ने प्रश्न किया।

"बाबूजी, अब ज़िंदगी पूरी तरह बदल गई है, कुछ ज़िम्मेदारियाँ है घर परिवार के प्रति, अब लिखने का समय ही नही मिलता" प्रमदा ने सरलता से कहा।

"ओह, "शरद बाबू कुछ सोचते हुए बोले।

"बहू, ये लो कलम , और आज बल्कि अभी से तुम लेखन शुरू करो, घर परिवार के कार्य सब मिलकर करेंगे" शरद बाबू ने प्रमदा को पेन देते हुए कहा।

"बाबूजी..." प्रमदा ने कृतज्ञ भाव से शरद बाबू के चरण स्पर्श किए।

तालियों की गड़गड़ाहट से प्रमदा की तंद्रा भंग हुई।

"आज का अगला अवार्ड वर्ष की सर्वश्रेष्ठ लेखिका , प्रमदा माथुर को जाता है, उन्हें ये अवार्ड उनकी पुस्तक"स्वयंसिद्धा" के बेहतरीन लेखन के लिए दिया जा रहा है, आईए प्रमदा जी" स्टेज पर प्रमदा का नाम पुकारते ही हॉल तालियों से गूंज उठा।

प्रमदा अपनी आँखों में झिलमिलाते तारोँ को पलकों से ढाँकते हुए उठी, उसने देखा दर्शक दीर्घा की प्रथम पंक्ति में उसका पूरा परिवार गर्मजोशी से तालियां बजाकर उसका स्वागत कर रहा है।

"प्रमदा जी, आपने लंबे अंतराल के बाद लेखन पुनः आरंभ किया और एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि एक स्त्री स्वयंसिद्धा होती है" मुख्य अतिथि ने अवार्ड देते हुए प्रमदा से कहा और माईक प्रमदा को देकर कहा कि वह भी दो शब्द बोले।

प्रमदा ने हाथ हिलाकर गौरवान्वित होते ,परिवार को देखते हुए कहा--

"मैं तो एक साधारण स्त्री हूँ, हर स्त्री स्वयंसिद्धा होती है, किंतु जब उसकी हर सफ़लता मे उसका परिवार साथ खड़ा हो तब वह सिद्ध हो जाती है सर्वश्रेष्ठ"


*नम्रता सरन "सोना"*

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन

 


*"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन..."*


"देखो तो अनंता, ये मुझे भुलक्कड़ कहते हैं, अभी मैंने इनसे पूछा कि आपने ऑइनमेंट रखा, तो बोले भूल गया, मैंने पूछा कि, माला रखी, तो बोले भूल गया, अब तुम बताओ , भुलक्कड़ मैं हूं या यह हैं, घुटनों के दर्द का आइनमेंट भूल आए, अब वहां जाते ही लेना पड़ेगा, और माला... उसके बिना तो मेरा एक दिन भी नहीं गुजरता, गीता रोज़ पढ़ती हूं, माला भी सुबह शाम ज़रूरी है, मुझे भुलक्कड़ कहते हैं,अब देखो तो कौन है भुलक्कड़.हा..हा..हा" वो सहयात्री बुज़ुर्ग महिला किसी से फोन पर बहुत ज़ोर से बात कर रही थी, दिल्ली से भोपाल आते हुए ललितपुर में तकरीबन पूरी बोगी खाली हो चुकी थी, कुछैक लोग ही शेप थे, उन्हीं में ये बुज़ुर्ग दंपति थे, काफी संभ्रांत वर्ग के और उच्च शिक्षित भी लग रहे थे। महिला कुछ ज़्यादा और ज़ोर ज़ोर से बात कर रही थी, उनके पति बार बार टोंक भी रहे थे, कि चुप रहो, शांत रहो, कूल डाउन, इत्यादि।

"सुनो , मैं यहां पर भी क्लास लूंगी, आध्यात्म के प्रति जागरूक करना हमारा नैतिक दायित्व है" महिला ज़ोर से पति से बोली।

"अब यहां मत करना यह सब, कुछ दिनों के लिए आए हैं, बेटा बहू के साथ रहने, शांति से रहना, किसी को परेशान मत करना" पति ने कहा।

"मैं कहां किसी को परेशान करती हूं, लेकिन मैं बिना कुछ किए नहीं रह सकती, जीवन में जैसे ही हालात हो, हमें अपने कर्म करते रहना चाहिए, और फिर मैं तो परमपिता परमेश्वर का मार्ग दिखाती हूं, इसमें परेशान करने वाली क्या बात है? बोलो ...अब चुप क्यों बैठे हो?" महिला ने निर्विकार भाव से कहा।

"तुमसे बहस करना बेकार है, तुम वही करोगी जो तुम्हें करना है" पति ने हाथ जोड़ते हुए कहा।

"अरे ऐसे मेरे लिए हाथ मत जोड़ो, उस ईश्वर के साथ जोड़ो, जिन्होंने हमें जीवन दिया है, और अंत में हमें उन्हीं की शरण में जाना है, आध्यात्म को व्यवहार में उतारना ही कर्म है" महिला ने फिर हंसते हुए कहा ‌।

"अच्छा प्रिंसिपल महोदया, मुझे बख़्श दो, स्टेशन आने वाला है, चलो उठकर धीरे धीरे निकलते हैं" पति ने उठते हुए कहा।

"कैसी हो मम्मा" स्टेशन पर उन्हें रिसीव करने आए बेटे ने मॉं के पैर छूते हुए पूछा।

"एकदम फिट, आज भी सारे काम खुद करती हूं, और साथ ही अध्यात्म की क्लास भी लेती हूं, बेटा मैं बैठी नहीं रह सकती, कुछ न कुछ करती रहती हूं, पर तेरे पापा को लगता है कि मैं बहुत बोलती हूं और सबको परेशान करती हूं" महिला ने बेटे से ज़ोर से बोलते हुए कहा।

"अब तुम चुप भी रहोगी या नहीं, आसपास सभी सुन रहे हैं, शांत रहो" पति ने कुछ झल्लाकर कहा।

"शान्त ही तो नहीं होना है, बेटा , ट्रेन में मैंने दाल चावल,एक रोटी और दही खा लिया है, सुनिती ने अगर खिचड़ी भी बना ली होगी तो कोई बात नहीं, मैं शाम को खा लूंगी, जब से मूझे कैंसर डिटेक्ट हुआ है, मैं लाइट फूड ही खाती हूं, बेटा बस मुझे एक रुद्राक्ष की माला ला देना, ये तुम्हारे भुलक्कड़ पापा, मुझे भुलक्कड़ कहते हैं, लाना भूल गए, अब तू ही बता कौन भुलक्कड़ है , मैं या यह" वह बुजुर्ग महिला और भी न जाने क्या क्या बेटे से कहती जा रही थी और हंसती जा रही थी।

मैं और मेरे पति हतप्रभ थे, कैंसर से जूझ रही वह महिला कितनी ज़िंदादिल थी, शायद जीवन के प्रति कर्मठता और बिना रुके कर्म करते रहना ही उसकी जीवटता का प्रमाण था। मेरे पति ने भावुक होकर उनके चरण स्पर्श करते हुए कहा-

"आंटी, आप अपनी क्लास कहां लेंगी, मैं भी आना चाहता हूं"

"देखा...अभी स्टेशन पर उतरी हूं, और मेरे स्टूडेंट भी तैयार हो गए, अब जलो तुम , मैं तो क्लास लूंगी" महिला ने पति को ताना दिया और खिलखिलाकर हंस पड़ी।


*नम्रता सरन "सोना"*

रविवार, 31 अक्तूबर 2021

मेरी डायरी के पन्नों पर

 1.


*मेरी डायरी के पन्नों पर*


न जाने कितने चराग़

रोज़ रोशन होते हैं...

मेरी डायरी के पन्नों पर..

तन्हा लम्हों में...


हर्फ़ों की महफ़िल मे

होता है मुसलसल

शब ए वस्ल का जश्न

खुद से रूबरू होकर

समेट लेती हूँ क़ायनात....

मेरी डायरी के पन्नों पर..

तन्हा लम्हों में....


एक एक हर्फ़

पढती हूँ कई कई बार...

झूम उठती हूँ

किसी पल को फ़िर जीकर...

और सहला देती वो लम्हा

जो लाया था सैलाब...

मौजूद हैं दर्द , तो मरहम भी...

मेरी डायरी के पन्नों पर..

तन्हा लम्हों में...


वक्त की करवटों से मिले ईनाम

सूखे हुए फ़ूलों के निशान

क़तरा क़तरा ज़िंदगी का

कुछ हादसे,कोई जीत,कोई मुकाम...

पैवस्त हर शिकस्त...

मेरी डायरी के पन्नों पर...

तन्हा लम्हों में....


फटे हुए पन्नों को

फिर से जोड़ लेती हूँ मैं..

कुछ सबक जो याद रखने हैं

उन पन्नों को थोड़ा मोड़ देती हूं मैं...

इल्तज़ा यही कि इसे..

कोई न पढ़े मेरे गुज़र जाने के बाद...

बेइंतहा दर्द होता है बिखर जाने के बाद...

मेरी तन्हाई,मेरी हमसफ़र

ये है मुझसे मेरा मिलन....

मेरी डायरी के पन्नों पर...

तन्हा लम्हों में.....



*नम्रता सरन "सोना"*

 *दंश*


"जॉय, बंटी, इशान...आओ ना, हम लोग फुटबॉल खेलेंगे" शुभ रोज़ की तरह अपने साथियों को आवाज देकर खेलने के लिए बुला रहा था।

"नहीं यार, अभी नहीं" इशान ने बालकनी से जवाब दिया और तुरंत अंदर चला गया, सोफे पर धम्म से बैठते हुए, मोबाइल में आंखें धंसाए रहा।

बाकी बच्चे भी बाहर नहीं निकले, सभी मोबाइल गेम में व्यस्त थे, शुभ रोज़ की तरह फुटबॉल पर अकेले ही शॉट मारते हुए उदास मन से चला गया।

अगले दो-तीन दिनों तक वह दिखाई नहीं दिया, तो जॉय की मम्मी ने यूं ही पूछ लिया-

जॉय, क्या बात है आजकल शुभ नहीं दिखाई दे रहा, ठीक तो है न वह"

"बिल्कुल ठीक है मम्मी, ये देखिए, अब वो भी ऑनलाइन हो गया है"


*नम्रता सरन"सोना"*